हठयोग की साधना से दोनों स्वरों में संतुलन
जब हम श्वास लेते हैं तब सामान्य रुप से दोनों स्वर एक-साथ कार्य नहीं करते। कभी एक स्वर चलता है तो कभी दूसरा, लेकिन इसमें कोई संतुलन नहीं होता है। हठयोग की साधना से दोनों स्वरों में संतुलन स्थापित होता है। जब हमारा दाँया स्वर चलता है तब हमारे शरीर की प्राण-शक्ति क्रियाशील होती है। अधिकांश शारीरिक क्रियायें, विकास, रक्षण एवं संचालन आदि इसी शक्ति द्वारा सम्पन्न होती है। श्वसन, पाचन-संस्थान, अवयव एवं ग्रन्थि से इसका सीधा सम्बन्ध है। पशु-पक्षियों एवं अन्य जीव-जन्तुओं में यह शक्ति अधिक सक्रिय होती है। इस शक्ति के अधिक सक्रिय होने से प्राणिक शक्ति एवं शारीरिक क्षमता तो बढ़ जाती है, परन्तु मानसिक शक्ति उसी अनुपात में कम होने लगती है। इसी प्रकार जब हमारा बाँया स्वर चलता है तो चेतना-शक्ति क्रियाशील होती है। मानसिक क्रियाक्लापों का संचालन इसके माध्यम से होता है। मनुष्य में अन्य प्राणियों की तुलना में इस शक्ति का विकास अधिक होता है। इस शक्ति के अधिक क्रियाशील होने पर शारीरिक-क्रियाक्लापों के प्रति व्यक्ति की उदासीनता तथा प्राणिक क्षमता भी कम हो जाती है।
हठयोग में साधक सूर्य नाड़ी तथा चन्द्र नाड़ी का उपयोग करके साधना करता है। जिससे दोनों नाड़ियों (स्वरों) में सन्तुलन स्थापित होता है, जिसके फलस्वरुप तीसरा स्वर सुषुम्णा (नाड़ी) जागृत होता है।
हठयोग का मुख्य उद्देश्य
हठयोग का मुख्य उद्देश्य आत्मपरिष्कार ही है। योगदर्शन मानता है कि व्यक्ति में पुरुष तत्व ‘ह’ (गर्म) तथा स्त्री तत्व ‘ठ’ (शीतल) दोनों ऊर्जाएं कार्यरत रहती हैं। इन दोनों के संतुलन से शरीर की ऊर्जा के मार्ग खुलते हैं। ऐसा होने पर ‘आत्मसाक्षात्कार’ में सहायता मिलती है।
राजयोग का अभिन्न अंग है हठयोग
हठयोग तन को स्वस्थ, मन को स्थिर आत्मा को परमपद में प्रतिष्ठित करने तथा अमृतत्व को प्राप्त करने का अमोघ साधन तथा महाज्ञान है। हठयोग राजयोग का अभिन्न अंग है तथा इसका अभ्यास तब तक किया जा सकता है जब तक राजयोग की सिद्धि न हो जाये और राजयोग का अंतिम लक्ष्य मनोनिग्रह के माध्यम से चित्त के मलों, विक्षेपों और पंचक्लेशों को दूर करना है। अतः यह कहा जा सकता है कि जो प्रयोजन राजयोग का है, वही हठयोग का भी है। यह मानवीय जीवन को सहज और प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल संयोजित करने का शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक प्रयोग है। इसमें तन-मन को शुद्ध करने के सात साधन बताये गये हैं-शोधन, दृढ़ता, स्थैर्य, धैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष और निर्लिप्ता अर्थात् शरीर शोधन के लिए षट्कर्म (धौति, बस्ति, नेति, नौलि, त्राटक और कपालभाति), दृढ़ता के लिए आसनों का अभ्यास, स्थैर्य (स्थिरता) के लिए मुद्रायें, धैर्य के लिए प्रत्याहार, लाघव (लघुता) के लिए प्राणायाम, ध्येय के प्रत्यक्ष दर्शनार्थ ध्यान और निर्लिप्तता (आसक्तिहीनता) के लिए समाधि आवश्यक है।
निष्कर्ष
इस प्रकार हठयोग योग का सर्वांगपूर्ण साधना है, जो स्वास्थ्य-संर्वधन, आधि-व्याधियों का निवारण, व्यक्तित्व विकास, आत्परिष्कार तथा प्रसुप्त क्षमताओं को जागृत करने के साथ ही भौतिक एवं परमार्थिक दोनों क्षेत्रों में आनन्द प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।