व्रत से सिद्धियों तक



व्रत अर्थात उत्तम संकल्प (कर्म)

किसी सात्त्विक लक्ष्य को सामने रखकर विशेष संकल्प के साथ लक्ष्यसिद्धि के की जाने वाली क्रियाविशेष का नाम व्रत है। व्रतों में निराहार, स्वल्पाहार का विशेष विधान है।  अत: उनमें आहारनिवृत्ति के द्वारा विषयनिवृत्ति करके मुक्तिपथ प्रशस्त करने के उपाय बताये गए हैं। दृढ़ निश्चय के लिए संस्कृत में संकल्प नाम दिया गया है। किसी भी व्रत का अनुष्ठान करने अथवा नियम लेने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। हमारे यहाँ इसीलिए किसी भी शुभ-कार्य को प्रारम्भ करते समय संकल्प का विधान है। मनु महाराज का कथन है -

सङ्कल्पमूल: कामो वै यज्ञा: सङ्कल्पसम्भवा: ।  व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे सङ्कल्पजा: स्मृता: ।।   

जो भी  कामना की जाती है उसके मूल में एक संकल्प रहता है।  यज्ञ भी संकल्प से ही सम्भव होते हैं। व्रत, नियम और धर्म सभी संकल्पजनित होते हैं।  संकल्प ही कार्य में प्रधान होता है, इसलिए दीर्घकाल तक उपासना करने योग्य कार्यकलाप को जो  एक निश्चित संकल्प के साथ किया जाय इसे व्रत  कहा गया है।

इस प्रकार संकल्पपूर्वक दृढ़ निश्चय के साथ क्रियाविशेष द्वारा जो अनुष्ठान किया जाय, उसे 'व्रत' कहा जाता है। हमारे शास्त्रों में जिन-जिन व्रतों का वर्णन किया गया है, वे कभी न कभी किसी ऋषि-महर्षि, महापुरुष अथवा साधक के द्वारा किये गए अनुष्ठान ही हैं।  इस प्रकार विधिपूर्वक व्रतानुष्ठान के द्वारा शरीर, मन और बुद्धि-तीनों अथवा आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक त्रिविध कल्याण की प्राप्ति होती है।  

वेद में परमात्मा (अग्निस्वरूप)-को व्रतपति कहा गया है -

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम। इदमहम नृतात   सत्यमुपैमि।।  (यजु०  १। ५) अर्थात हे ज्ञानमय एवं प्रकाशमय, व्रतपते (अर्थात श्रेष्ठ कर्मों के पालनकर्ता) परमात्मन ! मैं श्रेष्ठ कर्म करूँगा  (अर्थात यह मेरा व्रत एवं संकल्प है)।   मैं उसमें समर्थ हो सकूँ, ऐसी मेरे पर कृपा करें।  मैं अनृत से मुक्त होकर सत्य को प्राप्त करूँ। 

निम्न मंत्र में भी यही कहा गया है - व्रतेन  दीक्षामाप्नोति  दीक्षया  ऽप्नोति  दक्षिणाम।   दक्षिणा श्रद्धा माप्नोति श्रद्धया  सत्याप्यते।। (यजु०   ११। ३०)।  मनुष्य व्रत अर्थात उत्तम संकल्प (कर्म)-से दीक्षा  (निष्ठा या सम्पर्ण)-को प्राप्त करता है , दीक्षा से दक्षिणा (दाक्षिण्य, दक्षता या सम्पन्नता)-को प्राप्त करता है और दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है तथा श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। 


महाव्रत: निरापद रूप से व्रत का आचरण 

 देश, काल और पात्र से अतीत परमात्मा के निमित्त व्रत महाव्रत कहे जाते हैं। ये महाव्रत इसलिए कहे जाते हैं कि ये मनुष्य मात्र के लिए सदा करणीय कर्म हैं और मनुष्य मात्र की आध्यात्मिक प्रगति की चरम परणिति -भगवत्प्राप्ति के आधार हैं।  ये ही मानवधर्म  के आधारभूत तत्व हैं। 

व्रत का मतलब  होता है संकल्प।  महाव्रत का तात्पर्य है -ऐसा व्रत जिसमें किसी प्रकार का अपवाद न हो। निरापद रूप से जिस व्रत का आचरण किया जाता है, वही महाव्रत  कहलाता है।  महाव्रत पाँच हैं -अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।  इनमें से एक को भी जीवन में उतारा जा सके तो वह साधक महान संत बन सकता है। इनका पालन करने का व्रत ही वास्तव में सर्वोत्तम व्रत है।  मनुष्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह से दीर्घायु लाभ कर सकता है। 

'जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम'

'अष्टाँगयोग' में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और समाधि का उल्लेख करने के बाद महर्षि पतञ्जलि यम के पाँच अंगों का उल्लेख करते हैं।  इनके विषय में वे कहते हैं कि ये महाव्रत हैं -

'जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम' (पा०यो० साधनपाद सूत्र ३१) देश, काल, पात्र की सीमाओं से परे ये पॉँच महाव्रत सबके लिए सब समय करणीय हैं अर्थात कोई किसी भी धर्ममत या धर्मपथ का अवलंबन करने वाला क्यों न हो, उसे ये पॉँच महाव्रत  किये बिना चरम आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं हो सकती, वह पूर्णता की प्राप्ति नहीं कर सकता। 

प्रथम महाव्रत: अहिंसा 

'अहिंसा'  है, 'मनो वाक्कायै: सर्वभूतनामपीडनम' । अर्थात मन ,वाक (वाणी) और शरीर (कर्म) से सभी  भूतों (सजीव-निर्जीव) के प्रति अपीडन (पीड़ा न देने) का भाव।  अत: सजीव के अलावा निर्जीव पदार्थों के प्रति भी यदि हम पीडा देने का भाव रखकर कोई कार्य करते हैं तो वह भी हिंसा ही होगा।   इस प्रकार   मन में किसी भी सजीव-निर्जीव को  पीडा  देने    की न सोचना, किसी को भी प्राणी को कटुवाणी आदि के द्वारा  भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी की  हिंसा न करना-यह अहिंसा है।

हिंसा कभी भी धर्म  नहीं हो सकती। इस   विराट् विश्व में जितने भी प्राणी  हैं, वे चाहे छोटे  हों या बड़े हों, पशु हों या मानव हों, सभी  जीवित रहना चाहते हैं, कोई  भी मरना नहीं चाहता। अहिंसा में  सभी प्राणियों के  कल्याण की   भावना निहित है।  प्रश्न  व्याकरण में कहा गया त्रस, स्थावर सभी भूतनिकायों का मंगल करने   वाली अहिंसा है।  मनुष्य हिंसा क्यों करता है? हिंसा का कारण क्या है? इस प्रश्न  का उत्तर  आचाराङ्ग में दिया गया है। हिंसा का प्रमुख  कारण मानव का अज्ञान है। तत्त्व से अनभिज्ञ   होने के  कारण मनुष्य विषय, कषाय आदि मानसिक दोषों से पीड़ित है।  इसलिए वह हिंसात्मक   प्रवृत्ति करता है।

आयुर्वेद में इसे पापकर्म बतलाकर त्यागने के लिए कहा गया है।  सकारात्मक रूप में , बैर त्यागकर  प्रेम भाव को, आत्मीयता को प्रमुख स्थान देते हुए बुराई का मुकाबला करना अहिंसा है।  

अहिंसा सिद्धि फल 

अष्टांग  योग  का पहला अंग यम है और यम की शुरुआत   अहिंसा    से होती है। इस प्रकार योगाभ्यास में अहिंसा प्रथम सीढ़ी है। अहिंसा के बिना योग की सिद्धि संभव नहीं है। अहिंसा के अभ्यास में जब परिपक्वता आ जाती है तब सभी प्राणियों के प्रति भेदभाव समाप्त हो जाता है। 

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।। पा० यो० साधनपाद 35 ।।

 अर्थात   हिंसा के भाव से पूरी तरह से मुक्त होने पर अर्थात अहिंसा के सिद्ध होने पर उसके निकट या पास रहने वालों का वैरत्याग (आपस में वैरभाव) समाप्त हो जाता है।  उसकी इच्छा मात्र से अहिंसा की भावना सर्वत्र फ़ैल जाती है। 

सूत्रार्थ: अहिंसा के सिद्ध होने पर उस योगी के निकट अथवा पास रहने वाले सभी प्राणियों या जीव-जन्तुओं का आपसी वैरभाव खत्म हो जाता है।

दूसरा  महाव्रत: सत्य 

'सत्य'   महाव्रत का दूसरा अंग है।  मन, वचन तथा कर्म से वस्तु के यथार्थ रूप की अभिव्यक्ति ही सत्य है।  मन, वचन की एकरूपता को ही सत्य कहते हैं। साथ ही सत्य को प्रिय एवं कल्याणकारी भी होना चाहिए-'न ब्रूयात सत्यमप्रियम' अर्थात अप्रिय सत्य न बोलें।  स्मृतिकार के शब्दों में -'सत्यं ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात' सत्य बोलें, प्रिय बोलें  लेकिन अप्रिय सत्य न बोलें तथा प्रिय असत्य न बोलें।  

आयुर्वेद में भी आचार -रसायन में सर्वप्रथम 'सत्यवादिनम'   ही कहा गया है।  महाभारत में भी सत्य भाषण उत्तम है, हितकारक  वचन  बोलना सत्य से भी उत्तम है।  अत: इससे स्पष्ट होता है कि जिससे सब प्राणियों का हित हो वही सत्य है। 

सत्य सिद्धि फल 

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।। पा० यो० साधनपाद 36 ।।

सत्यप्रतिष्ठायाम् - सत्य की स्थिति दृढ़ होने पर, (योगी में),    क्रियाफलाश्रयत्वम्  क्रियाफल के आश्रय का भाव आ जाता है।

इस प्रकार सत्य का अभ्यास दृढ़ हो जाने पर साधक की वाणी अमोघ हो जाती है। उसके मुख से जो वचन निकलता है, वह सत्य हो जाता है। 

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह सम्भव है? क्या मात्र सत्य के सिद्ध होने से इतनी बड़ी सिद्धि प्राप्त हो सकती है?  हाँ ! क्योंकि सत्य को धारण करने वाला व्यक्ति सामान्य नहीं होता। उसका अपनी वाणी पर पूरा नियंत्रण होता है। वह किसी प्रकार की अनावश्यक वार्तालाप नहीं करता।   न वह किसी के साथ भेदभाव  करता है। व्यक्तियों को पहले ही समझने-पहचानने-परखने की क्षमता रखता है। 

तीसरा महाव्रत: अस्तेय 

'अस्तेय' अर्थात किसी की छोटी-से-छोटी वस्तु को बिना उसकी स्पष्ट अनुमति के स्वीकार नहीं करना।  साधारण शब्दों में चोरी न करना। पराई वस्तु को बिना उसकी आज्ञा के गुप्त रूप से या बलात्कारपूर्वक ले लेना स्तेय (चोरी) है, इससे बचना अस्तेय है।   अपने कर्त्तव्य का ईमानदारी से पालन न करना भी स्तेय है, क्योंकि इसके मूल में लोभ तथा राग का वास होता है।  इनका त्याग करना अस्तेय है। इस प्रकार अस्तेय का वास्तविक तात्पर्य है -अपना वास्तविक हक खाना, पूरा मूल्य चुकाकर किसी वस्तु को ग्रहण करना। 

सामान्यतया स्तेय से तात्पर्य है चोरी और अस्तेय का तात्पर्य है चोरी न   करना। स्तेय और अस्तेय के अनेक रूप बताए गए हैं। किसी की निन्दा करना, किसी के  दोषों   को देखना, चुगली करना, अन्य जीवों के प्राणों  का अपहरण करना, दूसरे के अधिकार   को छीनना, किसी की भावना को ठेस पहुंचाना, किसी के साथ अन्याय करना आदि सभी स्तेय के   अन्तर्गत आते हैं। अस्तेय महाव्रत के साधक को इन सभी प्रवृत्तियों से अपने को बचाना   होता है। 

अस्तेय साधना का फल

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्॥   पा० यो० साधनपाद 37 

अस्तेय के दृढ़ हो जाने पर उसको धन -सम्पत्ति आदि स्वत: प्राप्त हो जाते हैं।  गुप्त से गुप्त धन भी उसके लिए दुर्लभ नहीं रह जाता। 

इस प्रकार अस्तेय के अभ्यास से ईर्ष्या आदि भाव समाप्त हो जाते हैं।  जब व्यक्ति अस्तेय में पूरी निष्ठा से प्रतिबद्ध रहता है, तब उसका प्रभाव होता है-सर्व रत्नो उपलब्धि, सभी तरह के धन तुम्हें प्राप्त होते हैं, सभी तरह की सम्पन्नता तुम्हें मिलती है।

चौथा  महाव्रत: ब्रह्मचर्य 

'ब्रह्मचर्य' संतानोत्पत्ति के लिए ऋतुकाल की चर्या का उपयोग और सदा मन को ब्रह्म में लीन रखने का प्रयास ब्रह्मचर्य है।   याज्ञवल्क्यसंहिता में आया है-‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वथा। सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते।’ अर्थात जिस अवस्था में मन, वचन और कर्म-तीनों के द्वारा सदैव मैथुन का त्याग हो, उसे ‘ब्रह्मचर्य’ कहते हैं।

महाभारत के रचयिता महर्षि व्यासजी ने कहा है- ‘ब्रह्मचर्येण गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः।‘ विषयेन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाले सुखका संयमपूर्वक त्याग करना ब्रह्मचर्य है। देवताओं को देवत्व भी इसी ब्रह्मचर्य के द्वारा प्राप्त हुआ है।

महाव्रतों से सम्बन्धित ब्रह्मचर्य महाव्रत का विशेष महत्त्व है।  ब्रह्मचर्य  का अर्थ है-आत्मविद्या या आत्मविद्याश्रित आचरण। 'ब्रह्मचर्य’ शब्द दो शब्दों के योग से  बना है-‘ब्रह्म’ और ‘चर्य ’। ‘ब्रह्म’  शब्द के  मुख्यतः तीन अर्थ हैं-वीर्य, आत्मा,  विद्या। ‘चर्य ’ शब्द के भी तीन अर्थ हैं-‘रक्षण, रमण तथा अध्ययन।

इस तरह ब्रह्मचर्य  के तीन अर्थ है-वीर्य  रक्षण, आत्म-रमण और विद्याध्ययन। केवल वीर्यरक्षा या जननेन्द्रिय विषयक   संयम ब्रह्मचर्य  का अधूरा अर्थ है।  ब्रह्मचर्य  का विधेयात्मक रूप तो अपनी आत्मा या परमात्मा  की उपासना में लगना है। वीर्य रक्षा करना, योग साधना करना, विद्याध्ययन करना, किसी  विशाल ध्येय को सामने रखकर या निश्चित करके तदनुसार आचरण करना-ये सब   आत्मोपासना के  लिए सहायक ब्रह्मचर्य  के विधायक रूप हैं। 

ब्रह्मचर्य शौचाचार तथा सदाचार व्रत का मुख्य अंग है। ब्रह्मचारी पृथ्वी और आकाश को धारण करने वाला देवता होता है। वह अपने सदाचार व्रत अथवा तपस्या से आचार्य तथा राष्ट्र को परिपूर्ण करता है और उसी से ज्येष्ठ ब्रह्मज्ञान पैदा होता है। 

ब्रह्मचर्य   साधना का फल

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥    पा० यो० साधनपाद 38 

पातञ्जल योगदर्शन के साधनपाद (सूत्र-38) में ब्रह्मचर्य की महत्ता इन शब्दों में बतायी गयी है- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः।’ ब्रह्मचर्य की दृढ़ स्थिति हो जाने पर सामर्थ्य का लाभ होता है। शास्त्रकारोंने लिखा है-‘आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्चमहद्यशः। पुण्यं च प्रीतिमत्वं च हन्यतेऽब्रह्मचर्यया।।’ अर्थात् आयु, तेज, बल, वीर्य, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, यश तथा पुण्य और प्रीति -ये सब ब्रह्मचर्य का पालन न करने से नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत, श्रेष्ठ तप तथा श्रेष्ठ साधना है और इस साधना का फल है आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार। इस फल प्राप्ति के साथ ही ब्रह्मचर्यव्रत का पूर्ण अर्थ प्रकट होता है।

ब्रह्मचर्य एक प्रकार का तप है। सच्चरित्रता का मुख्य साधन ब्रह्मचर्य है। बस, इसी एक ब्रह्मचर्य के भीतर-सत्य, शौच, संतोष, क्षमा, दया, मैत्री, करुणा और आध्यात्म-चिन्तन सभी समायें हैं। ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करने से मेधा-शक्ति, दीर्घ-जीवन, उत्साह, उत्तम-गति, अपूर्व-सुख, मस्तिष्क में अच्छे-अच्छे विचार प्रवाहित होते हैं।

इस प्रकार  ब्रह्मचर्य अनमोल सिद्धियों का दाता है। 

पाँचवा  महाव्रत: अपरिग्रह 

 'अपरिग्रह'   आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु की अस्वीकृति अपरिग्रह है।  दूसरे शब्दों में, आवश्यकता से अधिक धन, सम्पत्ति आदि विषय या भोग वस्तु का संग्रह न करना अपरिग्रह है।  संचय की वृत्ति से लोभ एवं भोग तृष्णा ही बढ़ते हैं -जिनका कोई अंत नहीं, जो कभी शांत नहीं होती। किसी प्राणी को बिना पीडा पहुंचाए कोई भी भोग सम्भव नहीं है।  परिग्रह मात्र धन, सम्पदा तक ही सिमित नहीं है बल्कि अनावश्यक विचारों का संग्रह, निर्रथक ज्ञान का संग्रह  भी परिग्रह में शामिल हैं।  जिस प्रकार कम्प्यूटर, लेपटॉप, मोबाइल आदि में अनावश्यक फाइलों का बहुत अधिक संग्रह हो जाने पर वह हेंग करता रहता है अथवा सुचारु रूप से कार्य करना छोड़ देता है, उसी प्रकार परिग्रही के सिर पर सदा अशांति और अनीति ही सवार रहती है।  अत: आनंद प्राप्त करना है, सुख से जीवन व्यतीत करना है तो व्यक्ति  को आवश्यकता से अधिक धन, विषय-वस्तु के संग्रह से बचना चाहिए। 

अपरिग्रह महाव्रत को जानने के लिए परिग्रह को जानना आवश्यक है। परिग्रह का अर्थ है-ममत्व बुद्धि से किसी वस्तु का ग्रहण करना। परिग्रह का अर्थ है- किसी वस्तु का समस्त रूप से ग्रहण करना, अथवा   मूर्छावश जिसे ग्रहण किया जाता है या अपनेपन-मेरेपन के भाव से यह ‘मेरी है’, इस बुद्धि से   जिसे ग्रहण किया जाय, उसे परिग्रह कहते हैं।

अपरिग्रह  साधना का फल

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः ॥    पा० यो० साधनपाद 39   

अपरिग्रह की स्थिरता से साधक को वर्तमान व पूर्व जन्मों का सारा ज्ञान प्राप्त हो जाता है।   व्यास ने अपने भाष्य में कुछ ऐसा ही लिखा है – “मैं कौन था? मैं किस प्रकार था? यह जन्म क्या है? यह जन्म कैसे हुआ? हम जन्मान्तर में क्या होंगे? इस प्रकार इस योगी की भूतकाल, भविष्यत्काल और वर्तमान काल में अपनी स्थिति को जानने की इच्छा स्वभाव से होने लगती है ।” अर्थात् योगी को जन्म के कारणों के विषय में जिज्ञासा और (सम्बोधः) उसके बारे में ज्ञान होने लगता है । 

इस प्रकार  परिग्रह महाभय का हेतु है। परिग्रही व्यक्ति को आत्मानुभूति नहीं होती। जो परिग्रह में  चूर हैं, वे पदार्थों को पाकर प्रसन्न होते हैं। अपरिग्रही मनुष्य ही सत्य का दर्शन कर सकता  है। जो व्यक्ति सांसारिक भोगविलास में लिप्त है उसे सत्य का दर्शन नहीं हो सकता।   अपरिग्रही पदार्थों में ममत्व नहीं करता।

Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

.

Below Post Ad